चालुक्य राजा मंगलेशा का पुराना कन्नड़ शिलालेख (578 ई), बादामी गुफा मंदिर नं ३


चालुक्य राजा मंगलेशा का पुराना कन्नड़ शिलालेख (578 ई), बादामी गुफा मंदिर नं ३
जैसा इससे पूर्व कहा जा चुका है, कुब्ज विष्णुवर्धन्, पुलकेशिन् द्वितीय का छोटा भाई, जो चालुक्य साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिष्ठाता था, 615-16 ई. में आंध्र की राजधानी बेंगी के सिंहासन पर बैठा। पूर्वी चालुक्यवंशियों को राष्ट्रकूटों से दीर्घकालीन युद्ध करना पड़ा। अंत में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की बादामी शासक शाखा को अपदस्थ कर दिया और दक्षिण पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रकूट राजकुमार गोविंद द्वितीय ने आंध्र पर अधिकार कर लिया और तत्कालीन शासक कुब्ज विष्णुवर्धन् के दूरस्थ उत्तराधिकारी, विष्णुवर्धन चतुर्थ को आत्मसमर्पण के लिये बाध्य किया। विष्णुवर्धन् चतुर्थ अपने मुखिया गोविंद द्वितीय के पक्ष में राष्ट्रकूट ध्रुव तृतीय के विरुद्ध बंधुघातक युद्ध लड़ा और उसके साथ पराजय का साझीदार बना। उसने ध्रुव तृतीय और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी गोविंद तृतीय के प्रभत्व को मान्यता दे दी। तदनंतर पुत्र विजयादित्य द्वितीय कई वर्षों तक स्वतंत्रता के लिये गोविंद तृतीय से लड़ा, किंतु असफल रहा। राष्ट्रकूट सम्राट् ने उसे अपदस्थ कर दिया और आंध्र के सिंहासन के लिये भीम सलुक्की को मनोनीत किया। गोविंद तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में विजयादित्य ने भीम सलुक्की को परास्त कर दिया, आंध्र पर पुन: अधिकार कर लिया ओर दक्षिण को जीतता हुआ, विजयकाल में कैंबे (खंभात) तक पहुँच गया जो ध्वस्त कर दिया गया था। तत्पश्चात् उसके प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया किंतु प्रतिहार वाग्भट्ट द्वितीय द्वारा पराजित हुआ। घटनावशात् शत्रुओं में तंग आकर उसे अपने देश की शरण लेनी पड़ी। विजयादित्य द्वितीय के पौत्र विजयादित्य तृतीय (844-888ई.) ने उत्तरी अर्काट के पल्लवों को पराजित किया, तंजोर के कोलाओं को उनके देश के पंड्याओं पर पुनर्विजय में सहायता दी, राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय और उसके सबंधी दहाल के कलचुरी संकरगण और कालिंग के गंगों को परास्त किया और किरणपुआ तथा चक्रकूट नगरों को जलवा दिया। 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुहयुद्ध हुआ और बदप ने, जो चालुक्य साम्रज्य का पार्श्ववर्ती भाग था, राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय को सहायता देकर तत्कलीन चालुक्य शासक दानार्णव को परास्त कर दिया। फिर वेंगो के सिंहासन पर अवैध अधिकार कर लिया, जहाँ पर उसने और उसे उत्तराधिकारियों ने 999 ई. तक राज्य किया। अंत में दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन् ने सभी शत्रुओं को परास्त करने और अपने देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शक्तिवर्मन् का उत्तराधिकार उसके छोटे भाई विमलादित्य ने सँभाला। उसके पश्चात् उसका पुत्र राजराज (1018-60) उत्तराधिकारी हुआ। राजराज ने तंजोर के राजेंद्रचोल प्रथम की कन्या से विवाह किया और उससे उसको कुलोत्तुंग नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में चोल राजधानी में अपनी नानी तथा राजेंद्रचोल की रानी के पास रहा। सन् 1060 में राजराज अपने सौतेले भाई विक्रमादित्य सप्तम द्वारा अदस्थ किया गया जो वेंगी के सिंहासन पर 1076 तक रहा। सन् 1070 में राजराज के पुत्र कुलोत्तुंग ने चोल देश पर सार्वभौमिक शासन किया और सन् 1076 में अपने चाचा विजादित्य सप्तम को पराजित कर आंध्र को अपने राज्य में मिला लिया। कुलोत्तुंग और उसके उत्तराधिकारी, जो "चोल" कहलाना पसंद करते थे, सन् 1271 तक चोल देश पर शासन करते रहे।

ऊपर इसका उल्लेख किया जा चुका है कि बादामी का चालुक्य कीर्तिवर्मन् द्वितीय 8वीं शती के मध्यभाग में राष्ट्रकूटों द्वारा पदच्युत कर दिया गया, जिन्होंने बाद में दक्षिण में दो सौ वर्षों से अधिक काल तक राज्य किया। इस काल में कीर्तिवर्मन् द्वितीय का भाई भीम और उसके उत्तराधिकारी राष्ट्रकूटों के सामंतों की हैसियत से बीजापुर जिले में राज्य करते रहे। इन सांमतों में अंतिम तैल द्वितीय ने दक्षिण में राष्ट्रकूटों के शासन को समाप्त कर दिया और 973 ई. में देश में सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। वह बड़ी सफलता के साथ चोलों और गंगों से लड़ा और तैल की प्रारंभिक राजधानी मान्यखेट थी। सन् 993 के कुछ दिनों पश्चात् राजधानी का स्थानांतरण कल्याणी में हो गया जो अब बिहार में है। तैल का पौत्र जयसिंह (सन् 1015-1042) परमार भोज और राजेंद्र चोल से सफलतापूर्वक लड़ा। जयसिंह का बेटा सोमेश्वर (1042-1068) भी चोलों से बड़ी सफलतापूर्वक लड़ा और लाल, मालवा तथा गुर्जर को रौंद डाला। उसका उत्तराधिकार उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने 1069 में सँभाला जिसे उसके छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ ने 1076 ई. में अपदस्थ कर दिया। विक्रमादित्य कुलोत्तुंग प्रथम से आंध्र देश पर अधिकार करने के निमित्त लड़ा। युद्ध के विभिन्न परिणाम हुए और कुलोत्तंग प्रथम की मृत्यु के पश्चात् (1018 ई.) कुछ काल तक के लिये विक्रमादित्य ने उस प्रदेश कर अपना प्रभुत्व स्थापित रखा। उसने द्वारसमुद्र के "होयसलों" और देवगिरि के यादवों के विद्रोहों का दमन किया और लाल तथा गुर्जर को लूट लिया। उसके दरबार की शोभा कश्मीरी कवि "विल्हण" से थी, जिसने विक्रमांकदेवचरित लिखा है। विक्रमादित्य षष्ठ के पौत्र तैल तृतीय के शासनकाल में सन् 1156 में कलचुरी बिज्जल ने दक्षिण पर सार्वभौम अधिकार कर लिया और चालुक्य सम्राट् की मृत्यु के पश्चात् सन् 1163 में अपने को सम्राट् घोषित कर दिया। तैल तृतीय के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने 1181 में कलचुरी से पुन: राजसिंहासन छीन लिया, किंतु 1184 के लगभग फिर यादव भिल्लम को समर्पण करना पड़ा। उसके उत्तराधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हैं। चालुक्यवंश की तीन प्रमुख शाखाओं के साथ, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है, कुछ दूसरी शाखाएँ भी थीं जिन्होंने दक्षिण आंध्र और गुजरात आदि के कुछ भागों में प्रारंभिक काल में शासन किया।

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